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Madaari ka Bandar

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बड़ी कशमकश है, बड़ी बुज़दिली है, ये कैसी सज़ा जानवर को मिली है? चन्द पैसों की खातिर, मदारी का बंदर, तालियों पे तमाशे किए जा रहा है! वो थक भी गया है, डरा भी हुआ है नहीं भूख उसको, दबी प्यास उसकी वो जंगल के आज़ाद पेड़ों का राजा, तार पे चल तमाशे किए जा रहा है... ज़िंदा रहने को रोटी मिली भी तो क्या है? नींद मालिक की मर्ज़ी से मिलती, तो क्या है? ना है छाँव घर की, ना अपने निकट में, घनी धूप में भी घना है अंधेरा... वतन छोड़ पीछे, डरा आँख मीचे वो करतब पे करतब किए जा रहा है! हमने माना की जंगल में सूखा पड़ा था, था छोटा सा जंगल, वो प्यारा सा जंगल वो अलबेली मीठी सी यादों का जंगल वो अपनो का जंगल, जो सूखा पड़ा था नहीं बच गयी थीं बहुत ढेर फलियाँ था तालाब सूखा, थीं मुरझाईं कलियाँ ना जाने कहाँ से मदारी के फेके हुए जाल में वो फली ढूँढने को अकेला चला था वो लालच था शायद, या फिर भूख थी जो उसे जाल मे खींच के ले गयी थी गिरा, उठ ना पाया; फँसा, बच ना पाया मगर चीख कर, बाकियों को बचाया उसे बाँधकर वो शहर लेके आया चार दिन की चमक, रोटियों के मज़े भूल बैठा वो रस्ता, किधर से था आया वो यह सोचता है, अकेले मे अब भ